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कविता

चुल्लू की आत्मकथा

लीलाधर जगूड़ी


मैं न झील न ताल न तलैया
न बादल न समुद्र
मैं यहाँ फँसा हूँ इस गढ़ैया में
चुल्‍लू भर आत्‍मा लिये
सड़क के बीचों-बीच

मुझ में भी झलकता है आसमान
चमकते हैं सूर्य सितारे चाँद
दिखते हैं चील कौवे तोते और तीतर
मुझे भी हिला देती है हवा

मुझमें भी पड़कर
सड़ सकती है
फूल पत्तों सहित हरियाली की आत्‍मा

रोज कम होता
मेरी गँदली आत्‍मा का पानी
बदल रहा है शरीर में
चुपचाप
भाप बनकर
बाहर निकल रहा हूँ मैं।

 


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